किस की ख़ल्वत से निखर कर सुब्ह-दम आती है धूप
किस की ख़ल्वत से निखर कर सुब्ह-दम आती है धूप
कौन वो ख़ुश-बख़्त है जिस की मुलाक़ाती है धूप
दीदनी होता है दो रंगों का इस दम इम्तिज़ाज
बूंदियों के हम-जिलौ हम-रक़्स जब आती है धूप
तुम तो प्यारे चढ़ते सूरज के परस्तारों में थे
क्यूँ हो शिकवा-संज अगर तन को जला जाती है धूप
ख़ुश्बू-ए-महबूस को आज़ाद करने के लिए
लाख हो संगीं हिसार-ए-कोहर दर आती है धूप
इस गली में जैसे उस का दाख़िला ममनूअ' हो
यूँ दबे पाँव यहाँ आ कर गुज़र जाती है धूप
रात-भर पहलू में रहता है मुनव्वर आफ़्ताब
दिन से बढ़ कर अपनी गर्मी शब को दिखलाती है धूप
दिल ख़ुशी से झूमता है जब सर-ए-दीवार-ए-यार
नीम-वा दर से गुज़र कर सर्द बन जाती है धूप
रात पहलू में अचानक उस का चेहरा देख कर
दिल में ये आया तसव्वुर कितनी लम्हाती है धूप
बर्क़ के दम से थी कल जिस ख़्वाब-गह में मौज-ए-नूर
अब वहाँ भी तर्ज़-ए-नौ से जल्वा दिखलाती है धूप
ऐ 'सुहैल' इस में निहाँ है उस की महबूबी का राज़
तब-ए-मौसम देख कर फ़ौरन बदल जाती है धूप
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