आशोब-ए-आगही
जैसे दरिया किनारे
कोई तिश्ना-लब
आज मेरे ख़ुदा
मैं ये तेरे सिवा और किस से कहूँ
मेरे ख़्वाबों के ख़ुर्शीद ओ महताब सब
मेरे आँखों में अब भी सजे रह गए
मेरे हिस्से में कुछ हर्फ़ ऐसे भी थे
जो फ़क़त लौह-ए-जाँ पर लिखे रह गए
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