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ज़बाँ को हुक्म निगाह-ए-करम को पहचाने - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

ज़बाँ को हुक्म निगाह-ए-करम को पहचाने

ज़बाँ को हुक्म निगाह-ए-करम को पहचाने

निगह का जुर्म ग़ुबार-ए-अलम को पहचाने

वो एक जाम कहाँ हर किसी की क़िस्मत में

वो एक ज़र्फ़ कि ए'जाज़-ए-सम को पहचाने

मता-ए-दर्द परखना तो बस की बात नहीं

जो तुझ को देख के आए वो हम को पहचाने

वो दिल जो ख़ाक हुए आज तक धड़कते हैं

रह-ए-वफ़ा तिरे मोजिज़-रक़म को पहचाने

सहर से पहले यहाँ आफ़्ताब उभरे हैं

ख़ुलूस बंदगी-ए-चश्म-ए-नम को पहचाने

ये ख़ुद-फ़रेब उजाले ये हाथ हाथ दिए

दिए बुझाओ कि इंसान ग़म को पहचाने

किसी ख़याल का साया किसी उमीद की धूप

कोई तो आए कि दिल कैफ़-ओ-कम को पहचाने

हज़ार कोस निगाहों से दिल की मंज़िल तक

कोई क़रीब से देखे तो हम को पहचाने

जो हम-सफ़र भी रहे हैं शरीक-ए-मंज़िल भी

कुछ अजनबी तो न थे फिर भी कम को पहचाने

बहुत दिनों तो हवाओं का हम ने रुख़ देखा

बड़े दिनों में मता-ए-क़लम को पहचाने

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