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वो लम्हा कि ख़ामोशी-ए-शब नग़्मा-सरा थी - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

वो लम्हा कि ख़ामोशी-ए-शब नग़्मा-सरा थी

वो लम्हा कि ख़ामोशी-ए-शब नग़्मा-सरा थी

कानों पे गराँ दिल के धड़कने की सदा थी

जिस मोड़ पे छोड़ी है सहारों की तमन्ना

कहते हैं बड़ा क़हर वही लग़्ज़िश-ए-पा थी

क्यूँ आज धुआँ बन के उफ़ुक़-ता-ब-उफ़ुक़ है

इस साँस में कलियों के चटकने की सदा थी

हर लम्हा-ए-बेताब ने ढूँडी हैं पनाहें

गूँजी थी ख़मोशी तिरी आवाज़ तो क्या थी

हर दिन के सहीफ़े पे तिरा नाम लिखा है

हर शब की जबीं तेरा निशान-ए-कफ़-ए-पा थी

क्या कहते कि होंटों पे बस इक हर्फ़-ए-वफ़ा था

क्या कीजिए हर साँस जो ताज़ीर-ए-वफ़ा थी

उठते हुए देखा है धुआँ आतिश-ए-गुल से

क्या निकहत-ए-बर्बाद जले दिल की दुआ थी

क्या जानिए मरना भी रवा है कि नहीं है

तकवीन के लब पर मिरे जीने की दुआ थी

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