रोज़-ओ-शब की कोई सूरत तो बना कर रख्खूँ
रोज़-ओ-शब की कोई सूरत तो बना कर रख्खूँ
किसी लहजे किसी आहट को सजा कर रख्खूँ
कोई आँसू सा उजाला कोई महताब सी याद
ये ख़ज़ीने हैं इन्हें सब से छुपा कर रख्खूँ
शोर इतना है कि कुछ कह न सकूँगी उस से
अब ये सोचा है निगाहों को दबा कर रख्खूँ
आँधियाँ हार गईं जब तू ख़याल आया है
फूल को तुंद हवाओं से बचा कर रख्खूँ
मेरे आँचल में सितारे ही सितारे हैं 'अदा'
ये जो सदियाँ हैं जुदाई की सजा कर रख्खूँ
(883) Peoples Rate This