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निगाह ओट रहूँ कासा-ए-ख़बर में रहूँ - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

निगाह ओट रहूँ कासा-ए-ख़बर में रहूँ

निगाह ओट रहूँ कासा-ए-ख़बर में रहूँ

मैं बुझते बुझते भी पैराहन-ए-शरर में रहूँ

मैं ख़ुद ही रोज़ तमन्ना में आप शाम-ए-फ़िराक़

अजब नहीं जो अकेली भरे नगर में रहूँ

सुलग उठी तो अँधेरों का रख लिया है भरम

जो रौशनी हों तो क्यूँ चश्म-ए-नौहा-गर में रहूँ

तमाम उम्र सफ़र में गुज़ार दूँ अपनी

तमाम उम्र तमन्ना-ए-रहगुज़र में रहूँ

लिखा गया मुझे आवाज़-ए-ख़ामुशी की तरह

ख़ुद अपना अक्स बनूँ साया-ए-हुनर में रहूँ

वो तिश्नगी थी कि शबनम को होंट तरसे हैं

वो आब हूँ कि मुक़य्यद गुहर गुहर में रहूँ

'अदा' मैं निकहत-ए-गुल भी न थी सबा न थी

कि मेहमाँ सी रहूँ और अपने घर में रहूँ

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