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न बाम-ओ-दश्त न दरिया न कोहसार मिले - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

न बाम-ओ-दश्त न दरिया न कोहसार मिले

न बाम-ओ-दश्त न दरिया न कोहसार मिले

जुनूँ की राह थी हालात साज़गार मिले

लबों पे हर्फ़-ए-शिकायत भी आ के टूट गया

वो ख़ुद फ़िगार थे जो हाथ संग-बार मिले

उधर फ़सील-ए-शब-ए-ग़म इधर है शहर-ए-पनाह

सबा से कहियो वहीं आ के एक बार मिले

ये बेबसी तो मिरे अहद का मुक़द्दर थी

दिलों को दाग़-ए-तमन्ना भी मुस्तआ'र मिले

हथेलियों पे चराग़-ए-दुआ सजाए हुए

मिले निगार-ए-बहाराँ तो शर्मसार मिले

कोई तो राह-ए-तमन्ना में हम-सफ़र होता

कोई तो कू-ए-वफ़ा में ख़ता-शिआर मिले

मोहब्बतों से तो पहले ही क्या तवक़्क़ो थी

मुरव्वतों के भी दामान तार तार मिले

मैं कैसे अपने ख़द्द-ओ-ख़ाल आज पहचानूँ

जो आईना मिले आलूदा-ए-ग़ुबार मिले

मिरी तलब की ये मेराज है कि इज्ज़ 'अदा'

जिधर से गुज़रूँ वही एक रहगुज़ार मिले

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