मुझे रंग-ए-ख़्वाब से ज़िंदगी का यक़ीं मिला
मुझे रंग-ए-ख़्वाब से ज़िंदगी का यक़ीं मिला
कभी दिल दुखा तो कुछ और भी वो क़रीं मिला
कोई क़िस्सा हिज्र-ओ-विसाल का न सुना मुझे
जो हरीम-ए-दर्द तक आ गया सो वहीं मिला
सर-ए-ख़्वाब ही कभी तुम भी तो मुझे देखते
वो तिलिस्म था कि फ़लक भी ज़ेर-ए-नगीं मिला
इसी आइने से मिलेंगी मेरी गवाहियाँ
तुम्हें अक्स मेरा जिस आइने में नहीं मिला
कहीं नक़्श-ए-पा कोई मौज-ए-रंग नहीं थी मैं
मैं वो सोच हूँ जिसे ए'तिबार-ए-जबीं मिला
मिरी ज़िंदगी कड़ी धूप में तो कटी मगर
मिरी छाँव सा कोई साएबाँ भी कहीं मिला
हुआ यूँ कि फिर मुझे ज़िंदगी ने बसर किया
कोई दिन थे जब मुझे हर नज़ारा हसीं मिला
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