कोई संग-ए-रह भी चमक उठा तो सितारा-ए-सहरी कहा
कोई संग-ए-रह भी चमक उठा तो सितारा-ए-सहरी कहा
मिरी रात भी तिरे नाम थी उसे किस ने तीरा-शबी कहा
मिरे रोज़ ओ शब भी अजीब थे न शुमार था न हिसाब था
कभी उम्र भर की ख़बर न थी कभी एक पल को सदी कहा
मुझे जानता भी कोई न था मिरे बे-नियाज़ तिरे सिवा
न शिकस्त-ए-दिल न शिकस्त-ए-जाँ कि तिरी ख़ुशी को ख़ुशी कहा
कोई याद आ भी गई तो क्या कोई ज़ख़्म खिल भी उठा तो क्या
जो सबा क़रीब से हो चली उसे मिन्नतों की घड़ी कहा
भरी दोपहर में जो पास थी वो तिरे ख़याल की छाँव थी
कभी शाख़-ए-गुल से मिसाल दी कभी उस को सर्व-ए-समनी कहा
कहीं संग-ए-रह कहीं संग-ए-दर कि मैं पत्थरों के नगर में हूँ
ये नहीं कि दिल को ख़बर न थी ये बता कि मुँह से कभी कहा
मिरे हर्फ़ हर्फ़ के हाथ में सभी आइनों की हैं किर्चियाँ
जो ज़बाँ से हो न सका 'अदा' ब-हुदूद-ए-बे-सुख़नी कहा
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