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कहते हैं कि अब हम से ख़ता-कार बहुत हैं - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

कहते हैं कि अब हम से ख़ता-कार बहुत हैं

कहते हैं कि अब हम से ख़ता-कार बहुत हैं

इक रस्म-ए-वफ़ा थी सो वफ़ादार बहुत हैं

लहजे की खनक हो कि निगाहों की सदाक़त

यूसुफ़ के लिए मिस्र के बाज़ार बहुत हैं

कुछ ज़ख़्म की रंगत में गुल-ए-तर के क़रीं थे

कुछ नक़्श कि हैं नक़्श-ब-दीवार बहुत हैं

राहों में कोई आबला-पा अब नहीं मिलता

रस्ते में मगर क़ाफ़िला-सालार बहुत हैं

इक ख़्वाब का एहसाँ भी उठाए नहीं उठता

क्या कहिए कि आसूदा-ए-आज़ार बहुत हैं

क्यूँ अहल-ए-वफ़ा ज़हमत-ए-बेदाद-निगाही

जीने के लिए और भी आज़ार बहुत हैं

हर जज़्बा-ए-बेताब के अहकाम हज़ारों

हर लम्हा-ए-बे-ख़्वाब के इसरार बहुत हैं

पलकों तलक आ पहुँचे न किरनों की तमाज़त

अब तक तो 'अदा' आइना-बरदार बहुत हैं

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