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जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा

जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा

ये सुकूँ का दौर-ए-शदीद है कोई बे-क़रार कहाँ रहा

जो दुआ को हाथ उठाए भी तो मुराद याद न आ सकी

किसी कारवाँ का जो ज़िक्र था वो पस-ए-ग़ुबार कहाँ रहा

ये तुलू-ए-रोज़-ए-मलाल है सो गिला भी किस से करेंगे हम

कोई दिलरुबा कोई दिल-शिकन कोई दिल-फ़िगार कहाँ रहा

कोई बात ख़्वाब-ओ-ख़याल की जो करो तो वक़्त कटेगा अब

हमें मौसमों के मिज़ाज पर कोई ए'तिबार कहाँ रहा

हमें कू-ब-कू जो लिए फिरी किसी नक़्श-ए-पा की तलाश थी

कोई आफ़्ताब था ज़ौ-फ़गन सर-ए-रहगुज़ार कहाँ रहा

मगर एक धुन तो लगी रही न ये दिल दुखा न गिला हुआ

कि निगह को रंग-ए-बहार पर कोई इख़्तियार कहाँ रहा

सर-ए-दश्त ही रहा तिश्ना-लब जिसे ज़िंदगी की तलाश थी

जिसे ज़िंदगी की तलाश थी लब-ए-जूएबार कहाँ रहा

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