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जब दिल की रहगुज़र पे तिरा नक़्श-ए-पा न था - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

जब दिल की रहगुज़र पे तिरा नक़्श-ए-पा न था

जब दिल की रहगुज़र पे तिरा नक़्श-ए-पा न था

जीने की आरज़ू थी मगर हौसला न था

आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था

अच्छा हुआ कि साथ किसी को लिया न था

दामान-ए-चाक चाक-गुलूँ को बहाना था

वर्ना निगाह-ओ-दिल में कोई फ़ासला न था

कुछ लोग शर्मसार ख़ुदा जाने क्यूँ हुए

उन से तो रूह-ए-अस्र हमें कुछ गिला न था

जलते रहे ख़याल बरसती रही घटा

हाँ नाज़-ए-आगही तुझे क्या कुछ रवा न था

सुनसान दोपहर है बड़ा जी उदास है

कहने को साथ साथ हमारे ज़माना था

हर आरज़ू का नाम नहीं आबरू-ए-जाँ

हर तिश्ना-लब जमाल-ए-रुख़-ए-कर्बला न था

आँधी में बर्ग-ए-गुल की ज़बाँ से 'अदा' हुआ

वो राज़ जो किसी से अभी तक कहा न था

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