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गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ

गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ

हम ऐसे लोग अब मिलें हिकायतों के दरमियाँ

लहूलुहान उँगलियाँ हैं और चुप खड़ी हूँ मैं

गुल ओ समन की बे-पनाह चाहतों के दरमियाँ

हथेलियों की ओट ही चराग़ ले चलूँ अभी

अभी सहर का ज़िक्र है रिवायतों के दरमियाँ

जो दिल में थी निगाह सी निगाह में किरन सी थी

वो दास्ताँ उलझ गई वज़ाहतों के दरमियाँ

सहीफ़ा-ए-हयात में जहाँ जहाँ लिखी गई

लिखी गई हदीस-ए-जाँ जराहतों के दरमियाँ

कोई नगर कोई गली शजर की छाँव ही सही

ये ज़िंदगी न कट सके मसाफ़तों के दरमियाँ

अब उस के ख़ाल-ओ-ख़द का रंग मुझ से पूछना अबस

निगह झपक झपक गई इरादतों के दरमियाँ

सबा का हाथ थाम कर 'अदा' न चल सकोगी तुम

तमाम उम्र ख़्वाब ख़्वाब साअतों के दरमियाँ

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