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बेगानगी-ए-तर्ज़-ए-सितम भी बहाना-साज़ - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

बेगानगी-ए-तर्ज़-ए-सितम भी बहाना-साज़

बेगानगी-ए-तर्ज़-ए-सितम भी बहाना-साज़

बे-चारगी-ए-कर्ब-ओ-अलम भी बहाना-साज़

कुछ बुत बना लिए हैं चट्टानें तराश कर

दिल भी बहाना-साज़ है ग़म भी बहाना-साज़

उज़्र-ए-वफ़ा के साथ जलाते रहे चराग़

खुलता है अब कि दीदा-ए-नम भी बहाना-साज़

पाबंदी-ए-रुसूम-ए-वफ़ा भी बहाना-खू़

तर्क-ए-वफ़ा-ओ-शेवा-ए-रम भी बहानासाज़

हर लम्हा-ए-हयात का तन्हा रहा वजूद

दिलदारी-ए-निगाह-ए-करम भी बहाना-साज़

कुछ दूर साथ साथ थे इतना तो याद है

सहरा-ए-ग़म में नक़्श-ए-क़दम भी बहानासाज़

सब से बड़ा फ़रेब है ख़ुद ज़िंदगी 'अदा'

इस हीला-जू के साथ हैं हम भी बहाना-साज़

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