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आँखों में रूप सुब्ह की पहली किरन सा है - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

आँखों में रूप सुब्ह की पहली किरन सा है

आँखों में रूप सुब्ह की पहली किरन सा है

अहवाल जी का ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन सा है

कुछ यादगार अपनी मगर छोड़ कर गईं

जाती रुतों का हाल दिलों की लगन सा है

आँखें बरस गईं तो निखार और आ गया

यादों का रंग भी तो गुल-ओ-यासमन सा है

किस मोड़ पर हैं आज हम ऐ रहगुज़ार-ए-नाज़

अब दर्द का मिज़ाज किसी हम-सुख़न सा है

है अब भी रंग रंग-ए-तमन्ना का पैरहन

ख़्वाबों के साथ अब भी वही हुस्न-ए-ज़न सा है

किन मंज़िलों लुटे हैं मोहब्बत के क़ाफ़िले

इंसाँ ज़मीं पे आज ग़रीब-उल-वतन सा है

वो जिस का साथ छोड़ चुका नाज़-ए-आगही

अब भी तलाश-ए-रह में वही राहज़न सा है

शाख़ों का रंग-रूप ख़िज़ाँ ले गई मगर

अंदाज़ आज भी वही अर्बाब-ए-फ़न सा है

ख़ुशबू के थामने को बढ़ाए हैं हाथ 'अदा'

दामान-ए-आरज़ू भी सबा-पैरहन सा है

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