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आलम ही और था जो शनासाइयों में था - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

आलम ही और था जो शनासाइयों में था

आलम ही और था जो शनासाइयों में था

जो दीप था निगाह की परछाइयों में था

वो बे-पनाह ख़ौफ़ जो तन्हाइयों में था

दिल की तमाम अंजुमन-आराइयों में था

इक लम्हा-ए-फ़ुसूँ ने जलाया था जो दिया

फिर उम्र भर ख़याल की रानाइयों में था

इक ख़्वाब-गूँ सी धूप थी ज़ख़्मों की आँच में

इक साएबाँ सा दर्द की पुरवाइयों में था

दिल को भी इक जराहत-ए-दिल ने अता किया

ये हौसला कि अपने तमाशाइयों में था

कटता कहाँ तवील था रातों का सिलसिला

सूरज मिरी निगाह की सच्चाइयों में था

अपनी गली में क्यूँ न किसी को वो मिल सका

जो ए'तिमाद बादिया-पैमाइयों में था

इस अहद-ए-ख़ुद-सिपास का पूछो हो माजरा

मसरूफ़ आप अपनी पज़ीराइयों में था

उस के हुज़ूर शुक्र भी आसाँ नहीं 'अदा'

वो जो क़रीब-ए-जाँ मिरी तन्हाइयों में था

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