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आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था - अदा जाफ़री कविता - Darsaal

आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था

आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था

अच्छा हुआ कि साथ किसी को लिया न था

दामान-ए-चाक चाक गुलों को बहाना था

दिल का जो रंग था वो नज़र से छुपा न था

रंग-ए-शफ़क़ की धूप खिली थी क़दम क़दम

मक़्तल में सुब्ह-ओ-शाम का मंज़र जुदा न था

क्या बोझ था कि जिस को उठाए हुए थे लोग

मुड़ कर किसी की सम्त कोई देखता न था

कुछ इतनी रौशनी में थे चेहरों के आइने

दिल उस को ढूँढता था जिसे जानता न था

कुछ लोग शर्मसार ख़ुदा जाने क्यूँ हुए

अपने सिवा हमें तो किसी से गिला न था

हर इक क़दम उठा था नए मौसमों के साथ

वो जो सनम तराश था बुत पूजता न था

जिस दर से दिल को ज़ौक़-ए-इबादत अता हुआ

उस आस्तान-ए-शौक़ पे सज्दा रवा न था

आँधी में बर्ग-ए-गुल की ज़बाँ से अदा हुआ

वो राज़ जो किसी से अभी तक कहा न था

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