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हर एहतिमाम है दो दिन की ज़िंदगी के लिए - अबुल मुजाहिद ज़ाहिद कविता - Darsaal

हर एहतिमाम है दो दिन की ज़िंदगी के लिए

हर एहतिमाम है दो दिन की ज़िंदगी के लिए

सुकून-ए-क़ल्ब नहीं फिर भी आदमी के लिए

तमाम उम्र ख़ुशी की तलाश में गुज़री

तमाम उम्र तरसते रहे ख़ुशी के लिए

न खा फ़रेब वफ़ा का ये बेवफ़ा दुनिया

कभी किसी के लिए है कभी किसी के लिए

ये दौर-ए-शम्स-ओ-क़मर ये फ़रोग़-ए-इल्म-ओ-हुनर

ज़मीन फिर भी तरसती है रौशनी के लिए

कभी उठे थे जो ख़ुर्शीद-ए-ज़िंदगी बन कर

तरस रहे हैं वो तारों की रौशनी के लिए

सितम-तराज़ी-ए-दौर-ए-ख़िरद ख़ुदा की पनाह

कि आदमी ही मुसीबत है आदमी के लिए

रह-ए-हयात की तारीकियों में ऐ 'ज़ाहिद'

चराग़-ए-दिल है मिरे पास रौशनी के लिए

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