ये इक और हम ने क़रीना किया
ये इक और हम ने क़रीना किया
दर-ए-यार तक दिल को ज़ीना किया
बदल दी है सब सूरत-ए-आब-ओ-ख़ाक
मगर जब लहू को पसीना किया
वो कश्ती से देते थे मंज़र की दाद
सो हम ने भी घर का सफ़ीना किया
कहाँ हम तक आया कोई राज़ जो
कहाँ हम ने दिल को दफ़ीना किया
फ़क़ीरों का ये भी तिलिस्मात है
लहू रंग को आबगीना किया
चमकने लगा फिर ग़म-ए-राएगाँ
मगर एक जब ज़ख़्म-ओ-सीना किया
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