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ये इक और हम ने क़रीना किया - अबुल हसनात हक़्क़ी कविता - Darsaal

ये इक और हम ने क़रीना किया

ये इक और हम ने क़रीना किया

दर-ए-यार तक दिल को ज़ीना किया

बदल दी है सब सूरत-ए-आब-ओ-ख़ाक

मगर जब लहू को पसीना किया

वो कश्ती से देते थे मंज़र की दाद

सो हम ने भी घर को सफ़ीना किया

कहाँ हम तक आया कोई राज़-जू

कहाँ हम ने दिल को दफ़ीना किया

फ़क़ीरों का ये भी तिलिस्मात है

लहू-रंग को आबगीना किया

चमकने लगा फिर ग़म-ए-राएगाँ

मगर एक जब ज़ख़्म-ओ-सीना किया

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