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नुमू तो पहले भी था इज़्तिराब मैं ने दिया - अबुल हसनात हक़्क़ी कविता - Darsaal

नुमू तो पहले भी था इज़्तिराब मैं ने दिया

नुमू तो पहले भी था इज़्तिराब मैं ने दिया

फिर उस के ज़ुल्म-ओ-सितम का जवाब मैं ने दिया

वो एक डूबती आवाज़-ए-बाज़गश्त कि आ

सवाल मैं ने किया था जवाब मैं ने दिया

वो आ रहा था मगर मैं निकल गया कहीं और

सौ ज़ख़्म-ए-हिज्र से बढ़ कर अज़ाब मैं ने दिया

अगरचे होंटों पे पानी की बूँद भी नहीं थी

सुलगते लम्हों को इक सैल-ए-आब मैं ने दिया

खुला है पहलू-ए-पुर-जोश बे-महाबा आ

इक और मश्वरा-ए-इंक़िलाब मैं ने दिया

ये मुझ से गिर्या-ए-बेबाक क्यूँ नहीं होता

तो अपने दर्द को ख़ुद पेच-ओ-ताब मैं ने दिया

नख़ील ओ किश्त को सैराब मैं नहीं करता

ज़मीं को क़र्ज़ मगर बे-हिसाब मैं ने दिया

बदन ख़ुद अपनी ही तज्सीम कर नहीं पाते

क़रीब आया तो आँखों को ख़्वाब मैं ने दिया

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