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नक़्श-ए-यक़ीं तिरा वजूद-ए-वहम बुझा गुमाँ बुझा - अबुल हसनात हक़्क़ी कविता - Darsaal

नक़्श-ए-यक़ीं तिरा वजूद-ए-वहम बुझा गुमाँ बुझा

नक़्श-ए-यक़ीं तिरा वजूद-ए-वहम बुझा गुमाँ बुझा

कार-ए-हबीब के तुफ़ैल रौज़न-ए-राएगाँ बुझा

फ़र्द-ए-सियाह को मिरी नोक-ए-सिनाँ पे लाए थे

उन की निगाह पड़ गई अर्सा-ए-इम्तिहाँ बुझा

मस्त-रवी के दरमियाँ कौन क़दम क़दम गिने

मिशअल-ए-दिल कहाँ जली शो'ला-ए-जाँ कहाँ बुझा

मेरे जुनूँ का सिलसिला मरहला-वार हो गया

पहले ज़मीन बुझ गई बा'द में आसमाँ बुझा

रज़्म-ए-गह-ए-हयात में मैं न उतर सका कभी

इश्क़-ए-ज़माना-ख़ेज़ में सारा यहाँ वहाँ बुझा

शौक़ के दश्त खो गए शहर सराब हो गए

बारिश-ए-ज़र हुई बहुत हल्क़ा-ए-तिश्नगाँ बुझा

'हक़्क़ी'-ए-दिल-गिरफ़्ता के बस में न जाने कब नहीं

हिज्र में शाद-काम था वस्ल के दरमियाँ बुझा

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