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ज़ब्त कर आह बार बार न कर - अबू ज़ाहिद सय्यद यहया हुसैनी क़द्र कविता - Darsaal

ज़ब्त कर आह बार बार न कर

ज़ब्त कर आह बार बार न कर

ग़म-ए-उल्फ़त को शर्मसार न कर

जिस को ख़ुद अपना ए'तिबार न हो

ऐसे इंसाँ का ए'तिबार न कर

उस के फ़ज़्ल-ओ-करम पे रख नज़रें

अपने सज्दों का ए'तिबार न कर

बाग़ उजड़ने का ग़म ही क्या कम है

जाने भी दे ग़म-ए-बहार न कर

लोग तुझ को हक़ीर समझेंगे

हद से ज़ाइद भी इंकिसार न कर

वक़्त से फ़ाएदा उठा लेकिन

वक़्त का कोई ए'तिबार न कर

लुत्फ़ उठा बस निगाह-ए-अव्वल से

हर नज़र को गुनाहगार न कर

जिस से फ़ित्ने बपा हों दुनिया में

ऐसे ग़ाफ़िल को होशियार न कर

'क़द्र' को तू ने दी है जब इज़्ज़त

ऐ ख़ुदा उस को बे-वक़ार न कर

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