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मसरूर हो रहे हैं ग़म-ए-आशिक़ी से हम - अबु मोहम्मद वासिल कविता - Darsaal

मसरूर हो रहे हैं ग़म-ए-आशिक़ी से हम

मसरूर हो रहे हैं ग़म-ए-आशिक़ी से हम

क्यूँ तंग होंगे कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम

कोह-ए-अलम उठा ही लिया राह-ए-इश्क़ में

अपनी ख़ुशी को छोड़ के तेरी ख़ुशी से हम

लब-हा-ए-यार ने तो गुलिस्ताँ पिरो लिए

ख़ुशबू जो पा रहे हैं तिरी पंखुड़ी से हम

अपनी बहार देख के हैरान रह गए

वाक़िफ़ हुए हैं जब से रुमूज़-ए-ख़ुदी से हम

मेरी जबीन-ए-शौक़ को दर उन का मिल गया

उठ कर कहाँ को जाएँ दर-ए-बंदगी से हम

राह-ए-वफ़ा में जी के मरे मर के भी जिए

खेला उसी तरह से किए ज़िंदगी से हम

दामन को तार-तार किया मंज़िलें मिलीं

आएँगे अब न होश में दीवानगी से हम

ख़ुद दर्द बन गया मिरा दर्मान-ए-ज़िंदगी

इतना क़रीब हो गए कुछ दर्द ही से हम

जो मक़्सद-ए-हयात को भूले वही कहें

तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम

'वासिल' के दाग़-ए-दिल से है मंज़िल की रौशनी

वर्ना निकल के आते भला तीरगी से हम

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