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अगर मेरी जबीन-ए-शौक़ वक़्फ़-ए-बंदगी होती - अबु मोहम्मद वासिल कविता - Darsaal

अगर मेरी जबीन-ए-शौक़ वक़्फ़-ए-बंदगी होती

अगर मेरी जबीन-ए-शौक़ वक़्फ़-ए-बंदगी होती

तो फिर महशूर उन के साथ अपनी ज़िंदगी होती

जो तस्वीर-ए-ख़याली नक़्श दिल पर हो गई होती

तो अपनी ज़ात में हर-दम तिरी जल्वा-गरी होती

रज़ा-ए-दोस्त पर क़ुर्बान जिस की हर ख़ुशी होती

हक़ीक़त में उसी की ग़म से ख़ाली ज़िंदगी होती

निगाह-ए-मस्त-ए-साक़ी से जो मय-ख़्वारों ने पी होती

यक़ीनन हश्र तक उन को न फिर तिश्ना-लबी होती

हुसूल-ए-दर्द-ओ-ग़म की कोशिशों में गर कमी होती

सुरूर-ओ-कैफ़ की लज़्ज़त कहाँ मुझ को मिली होती

मुझे वो बातों बातों में अगर दीवाना कह देते

तो दीवानों में मेरी मो'तबर दीवानगी होती

तिरे मश्क़-ए-सितम ही ने किसी क़ाबिल किया मुझ को

तेरा एहसान वर्ना ज़िंदगी किस काम की होती

तुम्हारा आइना बन कर जो दिल पेश-ए-नज़र रहता

तुम्हीं तुम जल्वा-गर होते न सूरत दूसरी होती

तसव्वुर ही के आलम में जो वो तकलीफ़ फ़रमाते

तो क्यूँ फ़ुर्क़त-नसीबों के लिए शब हिज्र की होती

अगर तेरी तरह तब्लीग़ करता पीर-ए-मय-ख़ाना

तो दुनिया-भर में वाइज़ मय-कशी ही मय-कशी होती

तुम्हारी बे-नियाज़ी को ग़रज़ कब है मगर मेरी

तमन्ना है जबीन-ए-शौक़ वक़्फ़-ए-बंदगी होती

हयात-ओ-मौत का पैग़ाम देता हर-नफ़स 'वासिल'

कभी रू-पोश वो होते कभी जल्वा-गरी होती

जो मा'बूदान-ए-बातिल की जहाँ में सरवरी होती

मुक़ाबिल हैदरी के पस्त क्यूँ कर मरहबी होती

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