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ज़मीर-ए-नौ-ए-इंसानी के दिन हैं - अबु मोहम्मद सहर कविता - Darsaal

ज़मीर-ए-नौ-ए-इंसानी के दिन हैं

ज़मीर-ए-नौ-ए-इंसानी के दिन हैं

सदाक़त की जहाँबानी के दिन हैं

तिलिस्म-ए-सुब्ह-काज़िब ख़ुद ही टूटा

तुलूअ'-ए-सुब्ह-ए-नूरानी के दिन हैं

जुमूद-ए-फ़िक्र तोड़ा फिर बशर ने

उरूज-ए-ज़ेहन-ए-इंसानी के दिन हैं

हुकूमत-ए-वक़्फ़-ए-इस्तिब्दाद क्यूँ हो

उसी नुक्ते की अर्ज़ानी के दिन हैं

हुए बे-दस्त-ओ-पा ज़ालिम पुराने

सितम की ख़ाना-वीरानी के दिन हैं

खुली हर-फ़र्द-ओ-हर-मिल्लत की क़िस्मत

कि आज़ादी की सुल्तानी के दिन हैं

'सहर' वाजिब है ताज़ीम-ए-तग़य्युर

ये माना हम ने हैरानी के दिन हैं

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