सब इक न इक सराब के चक्कर में रह गए
सब इक न इक सराब के चक्कर में रह गए
क्या फेर आदमी के मुक़द्दर में रह गए
क्या दर्द-ए-मुश्तरक था ज़मीर-ए-सुकूत में
खो कर जो हम उदास से मंज़र में रह गए
ये दश्त-ए-ज़ीस्त और ये ख़ारा-तराशियाँ
जल्वे हुनर के सीना-ए-आज़र में रह गए
देखा सनम-कदों को तो अक्सर हुआ ख़याल
वो नक़्श-ए-जावेदाँ थे जो पत्थर में रह गए
दरवाज़े वा थे फिर भी अजब बे-दरी सी थी
हम ख़ुद असीर हो के खुले घर में रह गए
यूँ भी ग़म ओ नशात का क़िस्सा न हो तमाम
इंसान ढल के यास के पैकर में रह गए
मिलता नहीं कोई सर-ए-शोरीदा अब 'सहर'
पत्थर ही बस दयार-ए-सितमगर में रह गए
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