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बस्तियाँ लुटती हैं ख़्वाबों के नगर जलते हैं - अबु मोहम्मद सहर कविता - Darsaal

बस्तियाँ लुटती हैं ख़्वाबों के नगर जलते हैं

बस्तियाँ लुटती हैं ख़्वाबों के नगर जलते हैं

हम वहाँ हैं कि जहाँ शाम-ओ-सहर जलते हैं

दिल के ऐवान में अफ़्सुर्दा चराग़ों का धुआँ

दूर कुछ दूर वो यादों के खंडर जलते हैं

फिर किसी मंज़िल-ए-जाँ-सोज़ की जानिब हैं रवाँ

चोब-ए-सहरा की तरह अहल-ए-सफ़र जलते हैं

यूँ तो पुर-अम्न है अब शहर-ए-सितमगर लेकिन

कुछ मकाँ ख़ुद ही सर-ए-राहगुज़र जलते हैं

है ब-ज़ाहिर कोई शोला न चमक और शरर

हम किसी ग़म में ब-अंदाज़-ए-दिगर जलते हैं

आतिश-ए-तल्ख़ी-ए-हालात में क्या कुछ न जला

अब गिला क्या है जो एहसास के पर जलते हैं

गो हो बर्फ़ाब भी तस्कीन है दुश्वार 'सहर'

अपनी ही आग में अर्बाब-ए-हुनर जलते हैं

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