वस्ल की अर्ज़ का जब वक़्त कभी पाता हूँ
जा हैं ख़ामोशी सीं तब लब मिरे आपस में मिल
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अफ़्सोस है कि बख़्त हमारा उलट गया
ग़म से हम सूख जब हुए लकड़ी
नाज़नीं जब ख़िराम करते हैं
पलंग कूँ छोड़ ख़ाली गोद सीं जब उठ गया मीता
शौक़ बढ़ता है मिरे दिल का दिल-अफ़गारों के बीच
आया है सुब्ह नींद सूँ उठ रसमसा हुआ
दुश्मन-ए-जाँ है तिश्ना-ए-ख़ूँ है
दिल है तिरे प्यार करने कूँ
दूर ख़ामोश बैठा रहता हूँ
तीरा-रंगों के हुआ हक़ में ये तप करना दवा
ज़िंदगानी सराब की सी तरह
जलता है अब तलक तिरी ज़ुल्फ़ों के रश्क से