तवाफ़-ए-काबा-ए-दिल कर नियाज़-ओ-ख़ाकसारी सीं
वज़ू दरकार नईं कुछ इस इबादत में तयम्मुम कर
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क़यामत राग ज़ालिम भाव काफ़िर गत है ऐ पन्ना
क़द सर्व चश्म नर्गिस रुख़ गुल दहान ग़ुंचा
जंगल के बीच वहशत घर में जफ़ा ओ कुल्फ़त
तिरा क़द सर्व सीं ख़ूबी में चढ़ है
क्यूँ न आ कर उस के सुनने को करें सब यार भीड़
तुम्हारे देखने के वास्ते मरते हैं हम खल सीं
आज यारों को मुबारक हो कि सुब्ह-ए-ईद है
यार रूठा है हम सें मनता नहिं
बोसे में होंट उल्टा आशिक़ का काट खाया
आया है सुब्ह नींद सूँ उठ रसमसा हुआ
ख़ुदा के वास्ते ऐ यार हम सीं आ मिल जा
दिल कब आवारगी को भूला है