शेर को मज़मून सेती क़द्र हो है 'आबरू'
क़ाफ़िया सेती मिलाया क़ाफ़िया तो क्या हुआ
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जलते हैं और हम सीं जब माँगते हो प्याला
जंगल के बीच वहशत घर में जफ़ा ओ कुल्फ़त
और वाइज़ के साथ मिल ले शैख़
तीरा-रंगों के हुआ हक़ में ये तप करना दवा
क्यूँ न आ कर उस के सुनने को करें सब यार भीड़
इश्क़ है इख़्तियार का दुश्मन
है हमन का शाम कोई ले जा
यूँ 'आबरू' बनावे दिल में हज़ार बातें
हुस्न पर है ख़ूब-रूयाँ में वफ़ा की ख़ू नहीं
यार रूठा है हम सें मनता नहिं
कमाँ हुआ है क़द अबरू के गोशा-गीरों का
रोवने नीं मुझ दिवाने के किया सियानों का काम