सर कूँ अपने क़दम बना कर के
इज्ज़ की राह मैं निबहता हूँ
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ख़ुद अपनी आदमी को बड़ी क़ैद-ए-सख़्त है
इश्क़ की सफ़ मनीं नमाज़ी सब
जंगल के बीच वहशत घर में जफ़ा ओ कुल्फ़त
दिल कब आवारगी को भूला है
क़ौल 'आबरू' का था कि न जाऊँगा उस गली
दिवाने दिल कूँ मेरे शहर सें हरगिज़ नहीं बनती
साँप सर मार अगर जो जावे मर
तुम्हारी जब सीं आई हैं सजन दुखने को लाल अँखियाँ
उस ज़ुल्फ़-ए-जाँ कूँ सनम की बला कहो
नाज़नीं जब ख़िराम करते हैं
अगर अँखियों सीं अँखियों को मिलाओगे तो क्या होगा
निगह तेरी का इक ज़ख़्मी न तन्हा दिल हमारा है