मेहराब-ए-अबरुवाँ कूँ वसमा हुआ है ज़ेवर
क्यूँ कर कहें न उन कूँ अब ज़ीनतुल-मसाजिद
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न पावे चाल तेरे की पियारे ये ढलक दरिया
क्या सबब तेरे बदन के गर्म होने का सजन
हो गए हैं पैर सारे तिफ़्ल-ए-अश्क
कभी बे-दाम ठहरावें कभी ज़ंजीर करते हैं
उस वक़्त दिल पे क्यूँके कहूँ क्या गुज़र गया
रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का
गुनाहगारों की उज़्र-ख़्वाही हमारे साहिब क़ुबूल कीजे
मिल गया था बाग़ में माशूक़ इक नक-दार सा
अगर दिल इश्क़ सीं ग़ाफ़िल रहा है
निपट ये माजरा यारो कड़ा है
दिलदार की गली में मुकर्रर गए हैं हम
जलता है अब तलक तिरी ज़ुल्फ़ों के रश्क से