मालूम अब हुआ है आ हिन्द बीच हम कूँ
लगते हैं दिल-बराँ के लब रंग-ए-पाँ से क्या ख़ूब
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दिल नीं पकड़ी है यार की सूरत
ये तिरी दुश्नाम के पीछे हँसी गुलज़ार सी
नमकीं गोया कबाब हैं फीके शराब के
ख़ुद अपनी आदमी को बड़ी क़ैद-ए-सख़्त है
इंसान है तो किब्र सीं कहता है क्यूँ अना
इश्क़ की सफ़ मनीं नमाज़ी सब
हम नीं सजन सुना है उस शोख़ के दहाँ है
अफ़्सोस है कि बख़्त हमारा उलट गया
देख तू बे-रहम आशिक़ नीं तुझे छोड़ा नहीं
सर कूँ अपने क़दम बना कर के
आज यारों को मुबारक हो कि सुब्ह-ए-ईद है
कभी बे-दाम ठहरावें कभी ज़ंजीर करते हैं