क्यूँ मलामत इस क़दर करते हो बे-हासिल है ये
लग चुका अब छूटना मुश्किल है उस का दिल है ये
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नालाँ हुआ है जल कर सीने में मन हमारा
मिल गया था बाग़ में माशूक़ इक नक-दार सा
तुम यूँ सियाह-चश्म ऐ सजन मुखड़े के झुमकों से हुए
दूर ख़ामोश बैठा रहता हूँ
फिरते थे दश्त दश्त दिवाने किधर गए
जलते थे तुम कूँ देख के ग़ैर अंजुमन में हम
क़यामत राग ज़ालिम भाव काफ़िर गत है ऐ पन्ना
साथ मेरे तेरे जो दुख था सो प्यारे ऐश था
जंगल के बीच वहशत घर में जफ़ा ओ कुल्फ़त
और वाइज़ के साथ मिल ले शैख़
देख तू बे-रहम आशिक़ नीं तुझे छोड़ा नहीं
शब-ए-सियाह हुआ रोज़ ऐ सजन तुझ बिन