कभी बे-दाम ठहरावें कभी ज़ंजीर करते हैं
ये ना-शाएर तिरी ज़ुल्फ़ाँ कूँ क्या क्या नाम धरते हैं
Javed Akhtar
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Jaun Eliya
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Habib Jalib
Anwar Masood
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जाल में जिस के शौक़ आई है
दिवाने दिल कूँ मेरे शहर सें हरगिज़ नहीं बनती
मत ग़ज़ब कर छोड़ दे ग़ुस्सा सजन
हो गए हैं पैर सारे तिफ़्ल-ए-अश्क
ख़ुद अपनी आदमी को बड़ी क़ैद-ए-सख़्त है
निपट ये माजरा यारो कड़ा है
डर ख़ुदा सीं ख़ूब नईं ये वक़्त-ए-क़त्ल-ए-आम कूँ
हुस्न पर है ख़ूब-रूयाँ में वफ़ा की ख़ू नहीं
तुम्हारी देख कर ये ख़ुश-ख़िरामी आब-रफ़्तारी
ये सब्ज़ा और ये आब-ए-रवाँ और अब्र ये गहरा
किस की रखती हैं ये मजाल अँखियाँ
देखो तो जान तुम कूँ मनाते हैं कब सेती