जंगल के बीच वहशत घर में जफ़ा ओ कुल्फ़त
ऐ दिल बता कि तेरे मारे हम अब किधर जाँ
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इश्क़ की सफ़ मनीं नमाज़ी सब
हुस्न पर है ख़ूब-रूयाँ में वफ़ा की ख़ू नहीं
इस ज़ुल्फ़-ए-जाँ-गुज़ा कूँ सनम की बला कहो
तुम्हारे लोग कहते हैं कमर है
गरचे इस बुनियाद-ए-हस्ती के अनासिर चार हैं
किस की रखती हैं ये मजाल अँखियाँ
क़द सर्व चश्म नर्गिस रुख़ गुल दहान ग़ुंचा
हो गए हैं पैर सारे तिफ़्ल-ए-अश्क
नालाँ हुआ है जल कर सीने में मन हमारा
यार रूठा है हम सें मनता नहिं
अगर अँखियों सीं अँखियों को मिलाओगे तो क्या होगा
तुम यूँ सियाह-चश्म ऐ सजन मुखड़े के झुमकों से हुए