हुआ है हिन्द के सब्ज़ों का आशिक़
न होवें 'आबरू' के क्यूँ हरे बख़्त
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यूँ 'आबरू' बनावे दिल में हज़ार बातें
शौक़ बढ़ता है मिरे दिल का दिल-अफ़गारों के बीच
दिल्ली के बीच हाए अकेले मरेंगे हम
जाल में जिस के शौक़ आई है
दिखाई ख़्वाब में दी थी टुक इक मुँह की झलक हम कूँ
अगर अँखियों सीं अँखियों को मिलाओगे तो क्या होगा
ये सब्ज़ा और ये आब-ए-रवाँ और अब्र ये गहरा
सर कूँ अपने क़दम बना कर के
तिरा क़द सर्व सीं ख़ूबी में चढ़ है
हमारे साँवले कूँ देख कर जी में जली जामुन
तुम नज़र क्यूँ चुराए जाते हो
रखे कोई इस तरह के लालची को कब तलक बहला