ग़म सीं अहल-ए-बैत के जी तो तिरा कुढ़ता नहीं
ग़म सीं अहल-ए-बैत के जी तो तिरा कुढ़ता नहीं
यूँ अबस पढ़ता फिरा जो मर्सिया तो क्या हुआ
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ग़म सीं अहल-ए-बैत के जी तो तिरा कुढ़ता नहीं
यूँ अबस पढ़ता फिरा जो मर्सिया तो क्या हुआ
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