ग़म से हम सूख जब हुए लकड़ी
दोस्ती का निहाल डाल काट
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आशिक़ बिपत के मारे रोते हुए जिधर जाँ
बहार आई गली की तरह दिल खोल
वस्ल की अर्ज़ का जब वक़्त कभी पाता हूँ
दाग़ सीं क्यूँ न दिल उजाला हो
मेहराब-ए-अबरुवाँ कूँ वसमा हुआ है ज़ेवर
निगह तेरी का इक ज़ख़्मी न तन्हा दिल हमारा है
कनहय्या की तरह प्यारे तिरी अँखियाँ ये साँवरियाँ
तुम्हारे लोग कहते हैं कमर है
मालूम अब हुआ है आ हिन्द बीच हम कूँ
मैं निबल तन्हा न इस दुनिया की सोहबत सीं हुआ
तुम यूँ सियाह-चश्म ऐ सजन मुखड़े के झुमकों से हुए
और वाइज़ के साथ मिल ले शैख़