ब्यारे तिरे नयन कूँ आहू कहे जो कोई
वो आदमी नहीं है हैवान है बेचारा
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या सजन तर्क-ए-मुलाक़ात करो
रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का
ऐ सर्द-मेहर तुझ सीं ख़ूबाँ जहाँ के काँपे
तुम नज़र क्यूँ चुराए जाते हो
मिल गईं आपस में दो नज़रें इक आलम हो गया
मालूम अब हुआ है आ हिन्द बीच हम कूँ
बढ़े है दिन-ब-दिन तुझ मुख की ताब आहिस्ता आहिस्ता
हो गए हैं पैर सारे तिफ़्ल-ए-अश्क
इक अर्ज़ सब सीं छुप कर करनी है हम कूँ तुम सीं
क्यूँ मलामत इस क़दर करते हो बे-हासिल है ये
सैर-ए-बहार-ए-हुस्न ही अँखियों का काम जान
क़ौल 'आबरू' का था कि न जाऊँगा उस गली