आग़ोश सीं सजन के हमन कूँ किया कनार
मारुँगा इस रक़ीब कूँ छड़ियों से गोद गोद
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कमाँ हुआ है क़द अबरू के गोशा-गीरों का
कम मत गिनो ये बख़्त-सियाहों का रंग-ए-ज़र्द
कहें क्या तुम सूँ बे-दर्द लोगो किसी से जी का मरम न पाया
कहो तुम किस सबब रूठे हो प्यारे बे-गुनह हम सीं
यारो हमारा हाल सजन सीं बयाँ करो
दूर ख़ामोश बैठा रहता हूँ
दिल्ली में दर्द-ए-दिल कूँ कोई पूछता नहीं
रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का
डर ख़ुदा सीं ख़ूब नईं ये वक़्त-ए-क़त्ल-ए-आम कूँ
तुम्हारे लोग कहते हैं कमर है
तुम यूँ सियाह-चश्म ऐ सजन मुखड़े के झुमकों से हुए
शौक़ बढ़ता है मिरे दिल का दिल-अफ़गारों के बीच