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रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का - आबरू शाह मुबारक कविता - Darsaal

रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का

रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का

हुनर सीखा है उस शमशीर-ज़न ने बेद-ए-माली का

हर इक जो उज़्व है सो मिसरा-ए-दिलचस्प है मौज़ूँ

मगर दीवान है ये हुस्न सर-ता-पा जमाली का

नगीं की तरह दाग़-ए-रश्क सूँ काला हुआ लाला

लिया जब नाम गुलशन में तुम्हारे लब की लाली का

रक़ीबाँ की हुआ नाचीज़ बाताँ सुन के यूँ बद-ख़ू

वगर्ना जग में शोहरा था सनम की ख़ुश-ख़िसाली का

हमारे हक़ में नादानी सूँ कहना ग़ैर का माना

गिला अब क्या करूँ उस शोख़ की मैं ख़ुर्द-साली का

यही चर्चा है मज्लिस में सजन की हर ज़बाँ उपर

मिरा क़िस्सा गोया मज़मूँ हुआ है शेर-ए-हाली का

तुम्हारा क़ुदरती है हुस्न आराइश की क्या हाजत

नहीं मुहताज ये बाग़-ए-सदा-सरसब्ज़ माली का

लगे है शीरीं उस को सारी अपनी उम्र की तल्ख़ी

मज़ा पाया है जिन आशिक़ नीं तेरे सुन के गाली का

मुबारक नाम तेरे 'आबरू' का क्यूँ न हो जग में

असर है यू तिरे दीदार की फ़र्ख़ुंदा-फ़ाली का

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