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रखे कोई इस तरह के लालची को कब तलक बहला - आबरू शाह मुबारक कविता - Darsaal

रखे कोई इस तरह के लालची को कब तलक बहला

रखे कोई इस तरह के लालची को कब तलक बहला

चली जाती है फ़रमाइश कभी ये ला कभी वो ला

मुझे इन कोहना अफ़्लाकों में रहना ख़ुश नहीं आता

बनाया अपने दिल का हम नीं और ही एक नौ-महला

रही है सर नवा सन्मुख गई है भूल मंसूबा

तिरी अँखियों नीं शायद मात की है नर्गिस-ए-शहला

किया था ग़ैर नीं हम-रंग हो कर वस्ल का सौदा

तुम्हारा देख मुख का आफ़्ताब उस का तो दिल दहला

कफ़-ए-पा यार का है फूल की पंखुड़ी से नाज़ुक-तर

मिरा दिल नर्म-तर है उस के होते उस से मत सहला

जवाबों में ग़ज़ल के 'आबरू' क्यूँ कहल करता है

तू इक अदना तवज्जोह बीच कह लेता है मत कहला

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