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पलंग कूँ छोड़ ख़ाली गोद सीं जब उठ गया मीता - आबरू शाह मुबारक कविता - Darsaal

पलंग कूँ छोड़ ख़ाली गोद सीं जब उठ गया मीता

पलंग कूँ छोड़ ख़ाली गोद सीं जब उठ गया मीता

चितर-कारी लगी खाने हमन कूँ घर हुआ चीता

बनाई बे-नवाई की जूँ तरह सब से छुड़े हम नीं

तुझ औरों को लिया है साथ अपने इक नहीं मीता

सिरत के तार अबजद एक सुर हो मिल के सब बोले

कि जिस कूँ ज्ञान है उस जान कूँ हर तान है गीता

जुदाई के ज़माने की सजन क्या ज़्यादती कहिए

कि उस ज़ालिम की जो हम पर घड़ी गुज़री सो जुग बीता

मुक़र्रर जब कि जाँ-बाज़ों में उस का हो चुका मरना

हुआ तब इस क़दर ख़ुश-दिल गोया आशिक़ ने जग जीता

लगा दिल यार सीं तब उस को क्या काम 'आबरू' सेती

कि ज़ख़्मी इश्क़ का फिर माँग कर पानी नहीं पीता

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