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निपट ये माजरा यारो कड़ा है - आबरू शाह मुबारक कविता - Darsaal

निपट ये माजरा यारो कड़ा है

निपट ये माजरा यारो कड़ा है

मुसाफ़िर दुश्मनों में आ पड़ा है

रक़ीब अपने उपर होते हैं मग़रूर

ग़लत जानाँ है हक़ सब सीं बड़ा है

जो वो बोले सोइ वो बोलता है

रक़ीब अब भूत हो कर सर चढ़ा है

ख़ुदा हाफ़िज़ है मेरे दिल का यारो

पथर सीं जा के ये शीशा लड़ा है

ब-रंग-ए-माही-ए-बे-आब नस दिन

सजन नीं दिल हमारा तड़फड़ा है

रक़ीबाँ की नहीं फ़ौजाँ का विसवास

उधर सीं आशिक़ाँ का भी धड़ा है

करे क्या 'आबरू' क्यूँकर मिलन हो

रक़ीबाँ के सनम बस में पड़ा है

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