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मोहब्बत सेहर है यारो अगर हासिल हो यक-रूई - आबरू शाह मुबारक कविता - Darsaal

मोहब्बत सेहर है यारो अगर हासिल हो यक-रूई

मोहब्बत सेहर है यारो अगर हासिल हो यक-रूई

ये अफ़्सूँ ख़ूब असर करता है लेकिन जबकि जादूई

ख़याल-ए-मा-सिवा सीं साफ़ कर तू अपने सीने कूँ

कि दिल के रिश्ता-ए-इख़्लास कूँ लाज़िम है यकसूई

लिबास-ए-पम्बई बिन क्यूँके गुज़रे मौसम-ए-सर्मा

क़यामत है ये तेरी सर्द-मेहरी तिस पे ये सर्दी

अँधेरा आ गया आँखों के आगे ख़श्म सूँ मेरी

जभी उस छोकरे की बुल-हवस नें ज़ुल्फ़ टुक छूई

पसीने सीं तिरे ऐ शोख़ बू आती है दारू की

एती ऐ फ़ित्नागर सीखी कहाँ सीं तू नें बद-ख़़ूई

मुक़ाबिल दुख़्तर-ए-रज़ की जभी वो मुग़बचा बोला

अब उस के देख मारे शौक़ के पानी हो करचूई

हुए फिरते हो दुश्मन 'आबरू' के ऐ सजन अब तो

कहो उल्फ़त दिली और दोस्ती जानी वो क्या हुई

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