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कमाँ हुआ है क़द अबरू के गोशा-गीरों का - आबरू शाह मुबारक कविता - Darsaal

कमाँ हुआ है क़द अबरू के गोशा-गीरों का

कमाँ हुआ है क़द अबरू के गोशा-गीरों का

तबाहे हाल तिरी ज़ुल्फ़ के असीरों का

ढले है जिस पे दिल तिस का किया है ज़ाहिर इस्म

वही है वो कि जो मरजा है इन ज़मीरों का

हर एक सब्ज़ है हिन्दोस्तान का माशूक़

बजा है नाम कि बालम रखा है खीरों का

मुरीद पीट के क्यूँ नारा-ज़न न हों उन का

बुरा है हाल कि लागा है ज़ख़्म पीरों का

बिरह की राह में जो कुइ गिरा सो फिर न उठा

क़दम फिरा नहीं याँ आ के दस्त-गीरों का

वो और शक्ल है करती है दिल को जो तस्ख़ीर

अबस है शैख़ तिरा नक़्श ये लकीरों का

सैली में जूँ कि लटक्का हो 'आबरू' यूँ दिल

सजन की ज़ुल्फ़ में लटका लिया फ़क़ीरों का

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