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इंसान है तो किब्र सीं कहता है क्यूँ अना - आबरू शाह मुबारक कविता - Darsaal

इंसान है तो किब्र सीं कहता है क्यूँ अना

इंसान है तो किब्र सीं कहता है क्यूँ अना

आदम तो हम सुना है कि वो ख़ाक से बना

कैसा मिला है हम सीं कि अब लग है अनमना

सुन कर हमारी बात कूँ करता है हाँ न ना

मुखड़े की नौ-बहार हुई ख़त से आश्कार

सब्ज़ा न था ये हुस्न का बंजर था पर घना

मुर्दा है बे-विसाल रहे गो कि जागता

सोता हूँ यार साथ सो ज़िंदों में जागना

दूनी बिमारी जब सीं बताते हैं फ़ाहिशा

मल मल के जिस क़दर कि घिनाते हैं उबटना

यूँ दिल हमारा इश्क़ की आतिश में ख़ुश हुआ

भुन कर तमाम आग में खिलता है जूँ चना

नहिं आब-ओ-गिल सिफ़त तिरे तन के ख़मीर की

करता हूँ जान ओ दिल कूँ लगा उस की मैं सना

जब 'आबरू' का ब्याह हुआ बक्र फ़िक्र सीं

तब शायरों ने नाम रखा उस का बुत बना

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