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दुश्मन-ए-जाँ है तिश्ना-ए-ख़ूँ है - आबरू शाह मुबारक कविता - Darsaal

दुश्मन-ए-जाँ है तिश्ना-ए-ख़ूँ है

दुश्मन-ए-जाँ है तिश्ना-ए-ख़ूँ है

शोख़ है बाँक है निकत भूँ है

तुझ कूँ लैला भी देख मजनूँ है

दिल-रुबाओं का दिल-रुबा तूँ है

दिल के छिलने कूँ ये लटक चलना

सेहर है टोटका है अफ़्सूँ है

ख़ाल-ए-मुश्कीं है लाल लब-हा पर

या मय-ए-सुर्ख़ बीच अफ़्यूँ है

आन है दर्द के ज़ईफ़ाँ पर

आह दिल की अलिफ़ है क़द नूँ है

दरगुज़र कर रक़ीब सीं ऐ दिल

बे-हया है रिजाला है दूँ है

दर्द-ए-सर का इलाज क्यूँ न करे

यार का रंग संदली-गूँ है

शैख़ ख़िरक़े में जब मुराक़िब हो

गुर्बा मिस्कीन है मिरी जूँ है

गर वफ़ादार-कुश नहीं वो शोख़

'आबरू' साथ दुश्मनी क्यूँ है

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